सोमवार, 6 दिसंबर 2010

Budhapa

जिंदगी के इस सफ़र में ,मैं  अकेला हो चुका हूँ,
चार दिन की थी कहानी, सब झमेला खो चुका हूँ |

अब तो बस,सांसो की सिहरन, और बाकी है घुटन,
दिनों-दिन घटता ही जाता, है इस तन का वजन |

है मुझे अहसास पूरा, कि  ये बुढ़ापे का असर है,
हर वस्तु अब भी पूर्ववत है, बस धुंधली मेरी नज़र है |

पर जाने क्यूँ बढाती जाती, मेरे मन की जिज्ञासा,
क्यों  जिजीविषा बाकी अब भी,जब पाई है गहन निराशा |

कांप रहा, यह सुन तन मेरा, क्यों कहते सब मुझको बोर,
हर पल, हर क्षण ,बड़ी आ रही, देखो म्रत्यु मेरी ही ओर |

शून्य हो गयी उथल-पुथल सब, क्षीण हो गए सारे सपने,
आज बची बस टूटी खटिया,छोड़ चले मुझे सारे अपने |

कल तक समझ नहीं पाता था, क्यों मेरे तन में सिकुड़न है,
बच्चे, पत्नी, निर्धन, लुच्चे,हर जन में क्यों इतनी अकड़न है!

पर अब  मैं   यह समझ गया, यह जीवन एक सपन है,
रजा-रंक कोई भी हो, होते सभी दफ़न है |

मरने के बाद सभी के, होते बंद नयन है
हर प्राणी पाता बस,दो गज सिर्फ कफ़न है |

बस जीवित वह ही रहते है, प्यारा जिनको वतन है,
युगों-युगों तक उनकी श्रद्धा में, करते सभी नमन है |


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प्रश्न

कब तक करोगे इस धरती पर,
नारी का तुम यूँ अपमान ? 

क्या  ज्ञात नहीं !  तुमको मानव,
बल से ही बनता बलवान ?

उसकी ही शक्ति से तुम, 
बने हुए हो शक्ति-मान | 

जननी के अथक परिश्रम से ही,
प्राप्त किया ये कीर्ति-मान |

निज रक्त-सुधा से सिंचित करके,
बना दिया जिसने महान |

उसको ही अबला संबोधित कर,
मिटा रहे उसकी पहचान |

माना कि तुम परुष जाति हो,
पर इसका है क्यूँ अभिमान ? 

पुरुषत्व तुमारा कर्म नहीं,  
यह तो  स्रष्टि  का है विधान |

इससे अवलंबित होकर तुम,
कहते  हो खुद को क्यूँ महान ?

करोगे कब तक...........................?????