शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

Swabhiman

सच कहोगे,
फिर भी कहूँगा,
हकीकत नहीं |
देना चाहोगे-
हाथ उठाकर,
फिर भी कहूँगा-
नहीं साहब,
इसकी कोई-
जरुरत नहीं |
जानते हो क्यों  ?
क्यों कि -
'आज'
पूर्व की भाँति-
इंसान में इंसानियत की-
सीरत नहीं रही |
'कुर्सी के लिए'
जाने कब 'वो'
खुद को बेच दे ,
'आज'
उनके उसूलो में,
हकीकत नहीं रही |
मंदिर - मस्जिद के नाम पर -
वहशी बने हुए है सब,
भाई को ही भाई की -
जरूरत नहीं रही
जब किसी मजलूम को -

सहारे कि जरूरत होती  है
"तो"
झट से,"दामन"-
घसीट लेते हैं 
"ये"
अपना,नेतागिरी के सिवाय  -
इनमे,वतन-फरोशों के प्रति-
"जरा भी"
अकीदत नहीं रही |
हाय !कैसा आ गया जमाना,
देशद्रोहियों  के आगे -
वतन-परस्तों की कोई,
कीमत नहीं रही  |




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