बुधवार, 8 दिसंबर 2010

दर्द

  है कितनी निष्ठुर दुनिया,अब ये मैंने जाना|

  यहाँ किसी ने मुझको, कब है अपना माना ||

जिसको मैंने अपनी, जान से ज्यादा चाहा |

उसने ही मुझसे मिलने पर, ऐसा किया बहाना ||

जैसे हो सदियों से, वह बिलकुल अनजाना|

अब दोस्त किसी की खातिर, तुम न अश्रु बहाना ||

नहीं तो जग समझेगा, उस पर है  दीवाना |

शब्दों के तीर चलेगे, तुम बनोगे प्रथम निशाना||

तब तुम भूल जाओगे, प्रेम- प्रथा अपनाना|

सोचोगे सब मिथ्या है, मिथ्या है दिल का लगाना||



                                     इति


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धर्म की आवाज

मेरे स्नेहिल मित्रों !
युगों से मै प्रसिद्ध हूँ,
फिर भी-
तुम-सब मुझसे अनभिज्ञ हो,
मुझे जब हुआ यह ज्ञात|
"तो"-
मन में हुआ गहरा अघात|
सुह्रद्वर!
मैं "धर्म" हूँ -
आस्थाओं का पुंज,
निर्लोभी,निष्काम |
मानव समाज का धारक तत्त्व|
रजस,तमस से विरक्त शुद्ध सत्त्व |
मेरे नाम को लेकर -
मत करो कत्ले-आम
मत उजाड़ो किसी सुहागिन की मांग
न लो किसी निर्दोष की जान
सुबह होने से पूर्व,मत करो-
किसी दुधमुहे की शाम |
नहीं तोह समाप्त हो जाएगा -
मेरा अस्तित्व |
हो जाएगा मेरा स्थान रिक्त|
मेरा लिए तो सभी है सामान |
चाहे हो अल्लाह,
चाहे हो राम|
एक है जिस्म,तो-
दूजा है जान|
तुम सबसे ही जीवित है -
मेरी मुस्कान|




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