गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

हर युग की अभिलाषा

 अवनी-अम्बर समझ रहे है,मेरी तेरी भाषा,
 होता पहले कौन घृणित है,मिलती किसे निराशा 
पूरी कर ले अंतिम इच्छा,हर युग की अ|भिलाषा,
आओ हम तुम मिलकर देखे,प्रभु का खेल तमाशा||




त्रेतायुग में हरण   किया ,जोगी बन जनकसुता का,
विश्व-प्रतापी तू कहलाया, लहू बहा जनता का |
अट्टहास तू ही करता था, सब थे तेरे अनुगामी,
न भूलेगा कोई भी जन,तेरी अमर कहानी ||



एक ओर अन्याय खड़ा है,एक ओर  हैं दाता, 
आओ हम तुम मिलकर देखें,प्रभु का खेल तमाशा || 




द्वापरयुग में किया था तूने,एक सती का यूँ अपमान,
भरी सभा में नंगा करके, बढ़ा लिया था अपनी शान |
बिखर गयी थी वह तन-मन से, निकल रही थी उसकी 
जान,
हसता था पापी तू तबतक,जब तक आए न भगवान् ||




नहीं ज्ञात था शायद तुझको,सभी जगह हैं त्राता,
आओ हम-तुम मिलकर देखें,प्रभु का खेल तमाशा ||




त्रेता, द्वापर बीत गए, कलयुग की आई बरी,
तुझसे पीड़ित होकर मानव! सोच रही है हर नारी |
छल-बल से कब तक जीतेंगे, हम सबको ये अत्याचारी,
किस युग तक नीलम करेंगे, बेटी, बहू और महतारी ||




अब भी क्या तुम छुपे रहोगे! मेरे भाग्य-विधाता ?
आओ  हम तुम मिलकर देंखे ,प्रभु का खेल तमाशा ||






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